Add To collaction

मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


धिक्कार-2 मुंशी प्रेम चंद
2
आज ललिता का विवाह है। सबेरे से ही मेहमानों का आना शुरू हो गया है। गहनों की झनकार से घर गूँज रहा है। मानी भी मेहमानों को देख-देखकर खुश हो रही है। उसकी देह पर कोई आभूषण नहीं है और न उसे सुंदर कपड़े ही दिये गये हैं, फिर भी उसका मुख प्रसन्न है।
आधी रात हो गयी थी। विवाह का मुहूर्त निकट आ गया था। जनवासे से चढ़ावे की चीज़ें आयीं । सभी औरतें उत्सुक हो-होकर उन चीजों को देखने लगीं। ललिता को आभूषण पहिनाये जाने लगे। मानी के हृदय में बड़ी इच्छा हुई कि जाकर वधू को देखे। अभी कल जो बालिका थी, उसे आज वधू वेश में देखने की इच्छा न रोक सकी। वह मुस्कराती हुई कमरे में घुसी। सहसा उसकी चाची ने झिड़ककर कहा- तुझे यहाँ किसने बुलाया था, निकल जा यहाँ से।
मानी ने बड़ी-बड़ी यातनाएँ सही थीं, पर आज की वह झिड़की उसके हृदय में बाण की तरह चुभ गयी । उसका मन उसे धिक्कारने लगा। ‘तेरे छिछोरेपन का यही पुरस्कार है। यहाँ सुहागिनों के बीच में तेरे आने की क्या ज़रूरत थी।’ वह खिसियाई हुई कमरे से निकली और एकांत में बैठकर रोने के लिये ऊपर जाने लगी। सहसा जीने पर उसकी इंद्रनाथ से मुठभेड़ हो गयी। इंद्रनाथ गोकुल का सहपाठी और परम मित्र था। वह भी न्यौते में आया हुआ था। इस वक्त गोकुल को खोजने के लिये ऊपर आया था। मानी को वह दो-बार देख चुका था और यह भी जानता था कि यहाँ उसके साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया जाता है। चाची की बातों की भनक उसके कान में भी पड़ गयी थी। मानी को ऊपर जाते देखकर वह उसके चित्त का भाव समझ गया और उसे सांत्वना देने के लिये ऊपर आया, मगर दरवाज़ा भीतर से बंद था। उसने किवाड़ की दरार से भीतर झाँका। मानी मेज के पास खड़ी रो रही थी।
उसने धीरे से कहा- मानी, द्वार खोल दो।
मानी उसकी आवाज सुनकर कोने में छिप गयी और गंभीर स्वर में बोली- क्या काम है?
इंद्रनाथ ने गद्‍गद्‍ स्वर में कहा- तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ मानी, खोल दो।
यह स्नेह में डूबा हुआ हुआ विनय मानी के लिये अभूतपूर्व था । इस निर्दय संसार में कोई उससे ऐसे विनती भी कर सकता है, इसकी उसने स्वप्‍न में भी कल्पना न की थी। मानी ने काँपते हुए हाथों से द्वार खोल दिया। इंद्रनाथ झपटकर कमरे में घुसा, देखा कि छत से पंखे के कड़े से एक रस्सी लटक रही है। उसका हृदय काँप उठा। उसने तुरंत जेब से चाकू निकालकर रस्सी काट दी और बोला- क्या करने जा रही थी मानी? जानती हो, इस अपराध का क्या‍ दंड है?
मानी ने गर्दन झुकाकर कहा- इस दंड से कोई और दंड कठोर हो सकता है? जिसकी सूरत से लोगों को घृणा है, उसे मरने के लिये भी अगर कठोर दंड दिया जाय, तो मैं यही कहूँगी कि ईश्वर के दरबार में न्याय का नाम भी नहीं है। तुम मेरी दशा का अनुभव नहीं कर सकते। इंद्रनाथ की आँखें सजल हो गयीं। मानी की बातों में कितना कठोर सत्य भरा हुआ था । बोला- सदा ये दिन नहीं रहेंगे मानी। अगर तुम यह समझ रही हो कि संसार में तुम्हारा कोई नहीं है, तो यह तुम्हारा भ्रम है। संसार में कम-से-कम एक मनुष्य ऐसा है, जिसे तुम्हारे प्राण अपने प्राणों से भी प्यांरे हैं।
सहसा गोकुल आता हुआ दिखाई दिया। मानी कमरे से निकल गयी। इंद्रनाथ के शब्दों ने उसके मन में एक तूफ़ान-सा उठा दिया। उसका क्या आशय है, यह उसकी समझ में न आया। ‍फिर भी आज उसे अपना जीवन सार्थक मालूम हो रहा था । उसके अंधकारमय जीवन में एक प्रकाश का उदय हो गया।

   1
0 Comments